शायद ही कभी कोई ऐसा व्यक्तित्व हुआ हो जिसका जीवन और काम दोनों ही दुखद घटनाओं से भरा हुआ हो, जिसने इतना गहरा प्रभाव छोड़ा हो और इतने सारे अनुत्तरित प्रश्न छोड़े हों। उनकी फिल्मों, जिनमें से कुछ उन्होंने खुद बनाईं और कुछ उन्होंने खुद निर्देशित कीं, उनमें ‘कागज़ के फूल’, ‘बाज़ी’, ‘आर पार’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ और ‘प्यासा’ शामिल हैं।
‘प्यासा’ में गुरु दत्त की भूमिका दुखी कवि विजय के रूप में न केवल एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उनकी कलात्मक निपुणता को दर्शाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि वह संभवतः एक ऐसे व्यक्ति थे जो समाज और उसके नियमों से असहमत एक जुनूनी और समझौता नहीं करने वाले थे।
उनकी जीवनी ‘गुरु दत्त: एन अनफिनिश्ड स्टोरी’ में लेखक यासिर उस्मान ने अपने करीबी दोस्त देव आनंद के हवाले से लिखा है कि अगर दत्त को कुछ सही नहीं लगता था तो वह बहुत कुछ दोबारा शूट करते थे और अधिकांश को हटा देते थे। उस्मान लिखते हैं, ‘‘जब उन्होंने 1957 में ‘प्यासा’ बनाई, तब तक अनिर्णय की स्थिति कई गुना बढ़ चुकी थी। वह लगातार शूटिंग करते रहते थे और उन्हें यकीन नहीं होता था कि किसी खास दृश्य में वह क्या चाहते हैं। यहां तक कि ‘प्यासा’ के मशहूर ‘क्लाइमेक्स सीक्वेंस’ के लिए उन्होंने खुद भी 104 टेक शूट किए थे!’’